भारत का अपवाह तंत्र

भारत का अपवाह तंत्र

नमस्कार मित्रों ! आज हमलोग इस लेख के माध्यम से एक और महत्वपूर्ण भूगोल का विषय वस्तु के विभिन्न पहलुओं को जानेंगे जिसका नाम है भारत का अपवाह तंत्र। इसके अंतर्गत गंगा नदी तंत्र, सिंधु नदी तंत्र, ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र तथा प्रयद्वीपीय पठार के नदी तंत्र को शामिल किया जाता है। आपने कभी वर्षा के ऋतु में गौर किया होगा कि वर्षा का अतिरिक्त जल धरातल पर विभिन्न प्रकार के छोटी-बड़ी जल धाराओं के रूप में प्रवाहित होने लगती है। इन जल धाराओं को वाहिकाओं या जल धरा या जलमार्ग कहा जाता है।

ये छोटी-बड़ी वहिकाएँ आगे बढ़ने पर कुछ बड़ी वाहिकाओं में परिणित हो जाती है और फिर यही वहिकाएँ छोटी-बड़ी नालों और बाद में बड़ी नदियों में विकसित हो जाती है। और अतिरिक्त जल को अपने साथ बहाकर किसी जलाशय या झील, सागर, महासागर में जमा करती रही है। अगर ये वहिकाएँ नहीं रहती तो बड़े पैमाने पर क्षेत्र में बाढ़ आ जाती। जहाँ ये जल रेखाएं अवरुद्ध या अस्पष्ट होती है वहाँ अक्सर बाढ़ का सामना करना पड़ता है। इन्ही वहिकाओं को अपवाह कहते है।

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अपवाह क्या है ?

या अपवाह किसे कहते है ?

समान्य शब्दों में कहा जय तो नदियों को ही अपवाह कहा जाता है। नदियाँ एक प्रकार का जलमार्ग या वहिकाएँ होती है, जो किसी निश्चित दिशा में प्रवाहित होती है। ज़्यदातर नदियाँ या वहिकाएँ धरातल के ढाल का अनुसरण करते हुए प्रवाहित होती है। जब इन वाहिकाओं के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होता है तो नदियाँ इसे काट कर हटा देती है या अपना मार्ग बदल लेती है।

दूसरे शब्दों अगर अपवाह को परिभाषित किया जय तो, किसी भी क्षेत्र में निश्चित जलमार्गो या वहिकाओं में माध्यम से प्रवाहित जल को अपवाह कहा जाता है। ये वहिकाएँ हमेशा एक निश्चित दिशा एवं मार्ग में प्रवाहित होते है। जिन वाहिकाओं का मार्ग और दिशा निश्चित नहीं होती उन क्षेत्रों में अक्सर वर्षा ऋतू में बाढ़ का सामना करना पड़ता है।

भारत में कितनी नदियाँ ( अपवाह ) है ?

भारत में 10,360 नदियाँ है। उन निश्चित वाहिकाओं या जलमार्गो को नदी कहा जाता है, जिसकी लम्बाई 1.6 किमी से अधिक हो। इस तरह से भारत में इस तरह से भारत में कुल 10,360 नदियाँ है। और इन नदियों में वार्षिक जल प्रवाह 1,879 घन किमी होने का अनुमान लगाया गया है।

भारत की प्रमुख नदियाँ

अपवाह तंत्र क्या है ?

किसी क्षेत्र में निश्चित वहिकाओं या जलमार्गो के जाल ( तंत्र ) को अपवाह तंत्र कहा जाता है। इसमें एक प्रमुख जलमार्ग होती है जिसके माध्यम से उस क्षेत्र का सम्पूर्ण जल किसी झील या सागर तक ले जाया जाता है। इस प्रमुक जलमार्ग या वाहिका में कई छोटी-बड़ी सहायक जलमार्ग मिलते है। जिसके कारण प्रमुख जलमार्ग में जल की मात्रा अधिक होती है। तथा इसकी लम्बाई भी अन्य सहायक वहिकाओ से अधिक होती है।

अपवाह द्रोणी या अपवाह बेसिन या जल संभर क्या है ?

अपवाह द्रोणी उस क्षेत्र को कहा जाता है जो किसी एक नदी एवं उसके सहायक नदियों के द्वारा अपवाहित क्षेत्र होते है। इसे अपवाह बेसिन और जलसंभर के नाम से भी जाना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जब कोई अपवाहित नदी जितने क्षेत्रो से जल एकत्र करता है उस एकत्रण क्षेत्र या जल अधिग्रहण क्षेत्र ( Catchment area ) को अपवाह द्रोणी या अपवाह बेसिन कहा जाता है।

बड़े नदियों के अपवाह क्षेत्र को अपवाह द्रोणी या नदी बेसिन कहा जाता हैजबकि छोटी नदियों या नालों के अपवाहित क्षेत्र या जलग्रहण क्षेत्र को जल-संभर कहा जाता है। इसका क्षेत्रफल 1000 हेक्टेयर से भी कम हो सकता है। इसका विकास कभी-कभी बिना नदी का भी हो सकता है। केवल किसी क्षेत्र से जल का प्रवाह होना चाहिए। अपवाहित क्षेत्र/ जलग्रहण क्षेत्र या जल संभर क्षेत्र के आधार पर अपवाह क्षेत्र को तीन भागो में विभाजित किया जाता है।

  1. प्रमुख नदी द्रोणी।
  2. मध्यम नदी द्रोणी।
  3. लघु नदी द्रोणी।

( 1 ) प्रमुख नदी द्रोणी

जिन नदी द्रोणी का अपवाह क्षेत्र 20,000 वर्ग किमी से अधिक हो उसे प्रमुख नदी द्रोणी कहा जाता है। इसमें भारत के चौदह नदी द्रोणियों को शामिल किया जाता है। यह सम्पूर्ण भारत के अपवाह क्षेत्र का लगभग 84 प्रतिशत भाग है। चौदह नदियों का अपवाह क्षेत्र निम्न इस प्रकार है।

क्र. सं.नदियाँ लम्बाई
( किमी में )
जल ग्रहण क्षेत्र
( वर्ग किमी में )
औसत वार्षिक जल बहाव
भूमिगत जल को छोड़कर
( क्यूब किमी में )
अनुमानित
उपयोग योग्य
1सिंधु `1,114 (भारत में )3,21,28973.3146.0
2गंगा 2,525 (भारत में )8,61,452525.02250
3ब्रह्मपुत्र 916 (भारत में )1,94,413———–
4साबरमती 371`21,6743.811.99
5माही 58534,84211.023.10
6नर्मदा 131298,79645.6434.10
7तापी 72465,14514.8814.50
8ब्राह्मणी और
वैतरणी
799+36539,033+12,78928.4818.30
9महानदी 8511,41,58966.8849.99
10गोदावरी 1,4653,12,812110.5476.30
11कृष्णा 1,4012,58,94878.1258.00
12पेन्नार 59755,2136.326.86
13कावेरी 80081,15521.3619.00
14स्वर्णरेखा 39519,29612.376.81
स्रोत: – NCERT, भारत के प्रमुख नदी द्रोणी

( 2 ) मध्यम नदी द्रोणी

इसके अंतर्गत उन नदी द्रोणियों को सम्मिलित क्या जाता है जिसका अपवाह क्षेत्र 2,000 से 20,000 वर्ग किमी के मध्य हो इसके तहत 44 नदियाँ आती है जैसे- कालिंदी, परियार, मेघना आदि।

( 3 ) लघु नदी द्रोणी

इसमें उन नदी बेसिनों को शामिल क्या जाता है जिसका अपवाह क्षेत्र 2,000 वर्ग किमी से कम हो इसके अंतर्गत बहुत सारी छोटी नदियों को शामिल किया जाता है। इसमें कम वर्षा वाले क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली छोटी नदियाँ तथा पश्चिमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरने वाली नदियां प्रमुख है।

जल विभाजक किसे कहा जाता है।

किसी क्षेत्र में जल विभाजक उस ऊँचे भू-भाग को कहा जाता है। जो दो या दो से अधिक नदी द्रोणियो या बेसिनों को अलग करता है। जल विभाजक को ‘जल संभार’ ( Watershed ) भी कहा जाता है। जैसे:- अरावली पर्वत, दिल्ली कटक, पश्चिमी घाट।

जल विभाजक
जल विभाजक

भारत के अपवाह तंत्र का जल विसर्जन बंगाल की खाड़ी में होती है या अरब सागर में इन दोनों के मध्य जल विभाजक के रूप में उत्तर से दक्षिण की ओर कैलास पर्वत के मान सरोवर झील से प्रारम्भ होकर कमेंट पर्वत होते हुए शिमला के पूर्वी भाग को छूते हुए दिल्ली कटक, अरावली पर्वत तक, इसके दक्षिण में इंदौर के पास यह जल विभाजक नर्मदा नदी के उत्तर पूर्व में मुड़कर मैकाल, महादेव की पहाड़ियों के दक्षिण भाग में मुड़कर पुनः पश्चिम में अजंता की पहाड़ियों से होते हुए पश्चिमी घाट के सहारे-सहारे पश्चिमी तट के समानांतर कन्याकुमारी तक विस्तृत है।

अपवाह के प्रकार

किसी क्षेत्र की अपवाह मुख्य रूप से धरातल की ढाल एवं प्रकृति, जल के स्रोत, भौमिकी संरचना जैसे- वलन, भ्रंश, विदर, संधि, नति, नतिलंब, शैल के प्रकार आदि द्वारा प्रभावित होती है। अतः इन आधारों पर भारतीय अपवाह तंत्र को दो वर्गो में विभाजित किया जाता है।

( 1 ) क्रमवर्ती अपवाह तंत्र

इस अपवाह तंत्र में वहिकाएँ या नदियाँ क्षेत्र की धरातलीय ढाल एवं भौमिकीय संरचना के अनुरूप प्रवाहित होती है इसे चार भागो में विभाजित किया जाता है।

  1. अनुवर्ती अपवाह।
  2. परवर्ती अपवाह।
  3. प्रत्यनुवर्ती अपवाह।
  4. नवानुवर्ती अपवाह।

( 1 ) अनुवर्ती अपवाह

प्रारम्भिक ढाल के अनुसरण करते हुए प्रवाहित होने नदी या वहिकाओं को अनुवर्ती अपवाह या अनुगामी अपवाह कहा जाता है। इस प्रकार के अपवाह का विकास सबसे पहले होता है। यह अपवाह अपने अपवाह तंत्र का सबसे बड़ी एवं लम्बी अपवाह होती है। दक्षिण भारत या प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश नदियां अनुवर्ती नदियाँ है। जैसे:- गोदावरी, पेन्नरू, कृष्णा और कावेरी ढाल का अनुसरण करते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है। जबकि परियार, शरावती पश्चमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरती है।

अनुवर्ती अपवाह के उत्पत्ति एवं विकास के लिए सबसे उपयुक्त स्थलाकृति ज्वालामुखी शंकु या गुम्बदीय संरचना होती है। अनुवर्ती अपवाह को दो वर्गो में विभाजित किया जाता है।

  • पहला, अनुदैर्ध्य अनुवर्ती – जिसका विकास वलित संरचना में अभिनतियों में होती है।
  • दूसरा पार्श्वरती अपवाह – इसका विकास वलित संरचना के अपनतियों के पार्श्व भाग में होती है।

( 2 ) परवर्ती अपवाह

इस तरह के अपवाह का विकास अनुवर्ती सरिताओं के बाद होता है। जो अपनतियों या काटकों के अक्षों के सहारे विकसित होती है। ये नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती नदियों के समकोण पर मिलती है। या यू कहें ये नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती नदियों की प्रथम सहायक नदियाँ होती है।

प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी ढाल पर अर्थात विंध्याचल और सतपुड़ा से निकलने वाली नदियाँ उत्तर की ओर प्रवाहित होते हुए गंगा और यमुना में मिलती है। इन नदियों में चंबल, केन, बेतवा, सोन आदि प्रमुख है जो गंगा और यमुना के समकोण पर मिलती है।

( 3 ) प्रति अनुवर्ती अपवाह

यह अपवाह तृतीय क्रम की अपवाह होती है जो परवर्ती के समकोण पर मिलती है। तथा प्रमुख अनुवर्ती नदी के विपरीत प्रवाहित होती है। शिवालिक श्रेणियों से नकलकर उत्तर दिशा में प्रवाहित होने वाली नदियाँ शिवालिक के दक्षिण में प्रवाहित होने वाली प्रमुख अनुवर्ती गंगा यमुना की सहायक पूर्व पश्चिम दिशा में बहने वाली परवर्ती नदियों में समकोण पर मिलती है।

( 4 ) नवानुवर्ती अपवाह

यह अपवाह भी तृतीय क्रम की अपवाह होती है जो प्रमुख अनुवर्ती नदी के समांतर प्रवाहित होते हुए परवर्ती नदी के लगभग समकोण पर मिलती है। यह सबसे बाद में विकसित होने वाली अपवाह होती है। जो द्वितीय अपरदन चक्र के कारण विकसित होती है।

( 2 ) अक्रमवर्ती अपवाह तंत्र

इस अपवाह तंत्र में नदियाँ प्रादेशिक ढाल का अनुसरण न करके प्रतिकूल दिशा तथा भौमिकीय संरचना के आर-पार प्रवाहित होती है। इस प्रकार के अपवाह को दो भागो में विभाजित किया जाता है।

  1. पूर्ववर्ती अपवाह।
  2. पूर्वारोपित अपवाह।

( 1 ) पूर्ववर्ती अपवाह

इस प्रकार के अपवाह का विकास वर्त्तमान स्थलखंड के उत्थान से पूर्व ही हो चूका होता है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो किसी भी धरातल के उत्थान से पूर्व विकसित नदियों को पर्ववर्ती अपवाह कहा जाता है। ये नदियाँ नई उत्थित स्थलरूप को काटकर गहरी करते जाती है। जिससे इन क्षेत्रो में गहरे खड्ड, गोर्ज, केनियन का विकास होता है। चूँकि ये नदियाँ ढाल का अनुसरण नहीं करती है अतः इसे विलोम अनुवर्ती या प्रतिअनुवर्ती अपवाह भी कहा जाता है। ये नदियाँ काफी गहरी होती है।

भारत में इस प्रकार के अपवाह का उदाहरण हिमालय से निकलने वाली नदियाँ सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलज, गंगा, घाघरा, काली, गंडक, तीस्ता आदि प्रमुख है यहाँ प्रवाहित होने वाली नदियाँ सिंधु, सतलज, गंगा, घाघरा, कोसी, ब्रह्मपुत्र आदि हिमालय के तीनो श्रेणियों को आर-पार करती है।

( 2 ) पूर्वारोपित अपवाह

यह अपवाह भी पूर्ववर्ती अपवाह के भांति होती है। यह अपने प्रवाह क्षेत्र की संरचना के साथ समायोजित नहीं करती बल्कि धरातलीय संरचना ढाल के विपरीत प्रवाहित होती है। ऐसे अपवाह भारत में स्वर्णरेखा, चंबल, बनास, सोन आदि नदियों में देखने को मिलता है।

अपवाह तंत्र प्रतिरूप क्या है ?

किसी क्षेत्र या प्रदेश में अपवाह तंत्र प्रतिरूप, अपवाह तंत्र की आकृति होती है। कोई अपवाह तंत्र ऊपर से देखने पर किस प्रकार की आकृति से मिलता-जुलता दिखाई देता है। उसी आकृति के आधार पर उसका नामकरण कर दिया जाता है। सामान्य रूप से नदियों के जाल ऊपर से देखने पर यह गणित के ज्यामितीय आकारों अर्थात वृताकार, शंकुकार, आयताकार आदि से मिलते जुलते दिखाई देते है। अतः इनका नामकरण इसी आधार पर कर दिया जाता है।

अपवाह तंत्र प्रतिरूप
अपवाह तंत्र प्रतिरूप

इस आधार पर कहा जा सकता है कि, किसी क्षेत्र में अपवाह तंत्र के ज्यामितीय आकर तथा नदियों की स्थानिक व्यवस्था को ही अपवाह तंत्र प्रतिरूप कहा जाता है। जिसके वकास में उस क्षेत्र की ढाल, अपरदन एवं अपक्षय के लिए शैलो की प्रतिरोधक शक्ति, जलवायु, वनस्पति संबंधी विशेषताएँ, विवर्तनिक गतिविधियाँ, जलापूर्ति आदि प्रभावित करते है। इन आधारों पर भारत में निम्न अपवाह प्रतिरूप दिखाई देते है।

  1. द्रुमाकृतिक अपवाह प्रतिरूप।
  2. जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप।
  3. अपकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप।
  4. अभिकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप।
  5. आयताकार अपवाह प्रतिरूप।
  6. वलयाकार अपवाह प्रतिरूप।

( 1 ) द्रुमाकृतिक अपवाह प्रतिरूप

द्रुमाकृतक अपवाह प्रतिरूप
द्रुमाकृतिक अपवाह प्रतिरूप

इस प्रकार का अपवाह तंत्र या नदियों के जाल किसी पेड़ की शाखाओं या उनकी जड़ों की भांति दिखाई देता है। अतः इसे वृक्षाकार अपवाह प्रतिरूप भी कहा जाता है। इसे पादपाकार अपवाह प्रतिरूप भी कहा जाता है। इसमें प्रमुख नदी वृक्ष के तना एवं अन्य सहायक नदियां पेड़ की शाखाओं या टहनियों के भांति दिखलाई देता है।

इसका विकास ऐसे भू-भाग में होता है जहाँ धरातल लगभग सपाट एवं चौरस विस्तृत भाग हो, ढाल अत्यधिक मंद हो। भारत में इस प्रकार के प्रतिरूप गंगा के मैदान में ज्यादातर नदियों में देखने को मिलता है।

( 2 ) जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप

जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप
जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप

इस प्रकार के अपवाह प्रतिरूप का विकास उस समय होता है जब प्रमुख नदियाँ समांतर में प्रवाहित होती हो, और उनकी सहायक नदियाँ प्रमुख नदी पर समकोण पर मिलती हो। इस तरह के प्रतिरूप का विकास उन क्षेत्रो में होता है जहाँ पर कठोर तथा मुलायम चट्टाने समानांतर रूप में फैली हुए होती है। भारत में यह प्रतिरूप हिमालय पर्वत एवं पूर्वाचल की पहाड़ियों में देखने को मिलता है।

( 3 ) अपकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप

अपकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप
अपकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप

इस प्रकार के अपवाह प्रतिरूप उन क्षेत्रों में होता है जब नदियाँ किसी पहाड़ी से निकलकर चारो ओर प्रवाहित होती है। इस प्रतिरूप को अरीय प्रतिरूप ( Radial Pattern ) भी कहा जाता है। इसका उदाहरण झारखण्ड के हजारीबाग पठार के उत्थित भाग, पारसनाथ की पहाड़ी, पंचेत पहाड़ी तथा दलमा पहाड़ी पर देखा जा सकता है।

रांची शहर से दक्षिण पश्चिम दिशा में स्थित उत्थित भाग के दक्षिण में, दक्षिणी कोयल, दक्षिण पूर्व में स्वर्णरेखा, कांची, कारो आदि नदियाँ विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती है। अमरकंटक की पहाड़ी भी इसका सबसे अच्छा उदाहरण है यहाँ से पश्चिम की ओर नर्मदा, तपी उत्तर पूर्व में सोन, दक्षिण पूर्व में महानदी प्रवाहित होती है।

( 4 ) अभिकेंद्रीय अपवाह तंत्र

जब नदियाँ किसी झील में चारो ओर से आकर उसमे मिलती है। तो ऐसी आकृति को अभिकेंद्रीय अपवाह प्रतिरूप कहा जाता है। भारत में थार के मरुस्थल में इस प्रकार के अपवाह प्रतिरूप देखे जा सकते है

( 5 ) आयताकार अपवाह प्रतिरूप

आयताकार अपवाह प्रतिरूप
आयताकार अपवाह प्रतिरूप

आयताकार प्रतिरूप में भी सहायक नदियां मुख्य नदी पर समकोण में मिलती है, किन्तु यह प्रतिरूप जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप से भिन्न होती है। जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप में धरातल के ढाल के कारण अनुवर्ती नदियों में परवर्ती नदियाँ समकोण में मिलती है। जबकि आयताकार अपवाह प्रतिरूप में सहायक नदियाँ चट्टानी संरचना के कारण अनुवर्ती नदी के समकोण में मिलती है। यह प्रतिरूप विंध्यन की पहाड़ियों से निकलने वाली नदियों में देखा जा सकता है।

( 6 ) वलयाकार अपवाह प्रतिरूप

वलयाकार अपवाह प्रतिरूप
वलयाकार अपवाह प्रतिरूप

इस प्रतिरूप में सहायक नदियाँ या परवर्ती नदियाँ अपनी मुख्य नदी या अनुवर्ती नदी से जुड़ने से पहले वक्र अथवा चापाकार मार्ग से होकर गुजरती है इस तरह के अपवाह प्रतिरूप मुख्यतः प्रौढ़ एवं घर्षित गुंबदीय पर्वतों में विकसित होती है। भारत में पिथौरागढ़ ( उत्तराखंड ), तमिलनाडु एवं केरल की नीलगिरि की पहाड़ियों में देखने को मिलते है।

भारतीय अपवाह तंत्र का वर्गीकरण

भारतीय अपवाह तंत्र का वर्गीकरण के कई आधार हो सकते है। उनमे से कुछ महत्वपूर्ण वर्गीकरण निम्न इस प्रकार है।

  1. समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर।
    1. बंगाल की खाड़ी का अपवाह तंत्र।
    2. अरब सागर का अपवाह तंत्र।
  2. अपवाह द्रोणियों के क्षेत्रफल के आधार पर।
    1. प्रमुख अपवाह तंत्र।
    2. मध्यम आकार के अपवाह तंत्र।
    3. लघु आकार के अपवाह तंत्र।
  3. अपवाह तंत्रों के उद्गम स्थल के आधार पर।
    1. हिमालय के अपवाह तंत्र।
    2. प्रायद्वीपीय पठार के अपवाह तंत्र।

( 1 ) समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर

इस आधार पर भारतीय अपवाह तंत्र को दो भागो में विभाजित क्या जाता है। दोनों अपवाह तंत्र के मध्य दिल्ली कटक, अरावली पर्वत, एवं पश्चिमी घाट जल विभाजक के रूप में उच्च भूमि स्थित है। ये दो अपवाह तंत्र निम्न है।

( 1 ) बंगाल की खाड़ी का अपवाह तंत्र

इसके अंतर्गत बंगाल की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करने वाली अपवाह तंत्रो को शामिल किया जाता है। जिसमे गंगा नदी तंत्र , ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदी तंत्रो को शामिल किया जाता है यह अपवाह तंत्र भारत के कुल अपवाह तंत्र का 77 प्रतिशत भाग है।

( 2 ) अरब सागर का अपवाह तंत्र

इसमें सिंधु, नर्मदा, तपी, माही, पेरियार, सबरमती, लूणी आदि नदी तंत्रो को सम्मिलित किया जाता है। इन नदी तंत्रो का जल विसर्जन अरब सागर में होती है यह अपवाह तंत्र भारत के सम्पूर्ण अपवाह तंत्र का 23 प्रतिशत क्षेत्र समाहित है।

( 2 ) अपवाह द्रोणी के क्षेत्रफल के आधार पर

अपवाह द्रोणी या बेसिन के क्षेत्रफल के आधार पर भारत के अपवाह तंत्र को तीन भागो में विभाजित किया जाता है।

( 1 ) प्रमुख अपवाह तंत्र

इसके अंतर्गत उन अपवाह तंत्रो को शामिल किया जाता है जिन नदी द्रोणियो का अपवाह क्षेत्र 20 हजार वर्ग किमी से अधिक हो। इसके अंतर्गत 14 अपवाह तंत्रो को शामिल किया जाता है। सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, साबरमती, माही, नर्मदा, तपी, ब्राह्मणी और वैतरणी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, कावेरी तथा स्वर्णरेखा अपवाह तंत्र।

( 2 ) मध्यम आकार के अपवाह तंत्र

इन नदी तंत्रो का आकार 2 हजार से 20 हजार वर्ग किमी के मध्य होता है। इसमें भारत की लगभग 44 नदी तंत्रों को शामिल किया जाता है। जिसमे से कालिंदी, पेरियार, बराक, शरावती नदी तंत्र प्रमुख है।

( 3 ) लघु आकार के अपवाह तंत्र

इसमें उन अपवाह तंत्रो को सम्मिलित क्या जाता है जिसका अपवाह क्षेत्र का क्षेत्रफल 2 हजार वर्ग किमी से कम हो ऐसे अपवाह तंत्र का विकास उन क्षेत्रो में होता है। जहाँ वर्षा की मात्र कम होती हो। भारतीय मरुस्थल में इस प्रकार के अपवाह तंत्रो को देखा जा सकता है।

( 3 ) अपवाह तंत्रो के उद्गम स्थल के आधार पर

इस आधार पर भारत के अपवाह तंत्रो को दो भागो में विभाजित किया जाता है। भारत में जितनी भी अपवाह तंत्र है उसका उद्गम या तो हिमालय पर्वत से हुआ है या तो प्रायद्वीपीय पठार से हुआ है।

( 1 ) हिमालय के अपवाह तंत्र

हिमालय के अपवाह तंत्र में जिन नदी तंत्रो का उद्गम स्रोत हिमालय है उसको इसमें शामिल किया जाता है। जैसे:- सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र। हलांकि इसमें प्रायद्वीपीय पठार से नकलने वाली अपवाह सिंध, केन बेतवा, चंबल, सोन आदि अपवाद में आते है।

( 2 ) प्रायद्वीपीय पठार के अपवाह तंत्र

इसमें महानदी, स्वर्णरेखा, ब्राह्मणी, वैतरणी, महानदी, कृष्णा, कावेरी नदी तंत्र पूरब की ओर प्रवाहित होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है। जबकि नर्मदा, तापी, माहि साबरमती, आदि नदी तंत्र प्रवाहित होते हुए अरब सागर में गिरती है। इन नदी तंत्रो का उद्गम स्थल मुख्य रूप से पश्चिमी घाट तथा अमरकंटक की पहाड़ी है।

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