नमस्कार दोस्तों ! आज हमलोग इस लेख में भारत की भूगर्भिक संरचना के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। किसी क्षेत्र की भूगर्भिक संरचना का तात्पर्य उस क्षेत्र के भीतर पाए जाने वाली धरातलीय तथा धरातल के नीचे की चट्टानों के स्वरूप एवं प्रकृति से है। चट्टानों की प्रकृति या गुण-धर्म उसके निर्माण की प्रक्रिया तथा उसके आयु से निर्धारित होती है। जिन चट्टानों का निर्माण प्राचीनतम काल तथा लावा के जमने से हुआ होता है वे चट्टानें कठोर तथा जीवाश्म रहित होते है। जबकि बाद की चट्टानें या निक्षेपण की प्रक्रिया से बानी चट्टानें अपेक्षाकृत कम कठोर और मुलायम प्रकार की होती है और इस प्रकार के ज़्यदातर चट्टानों में जीवो के अवशेष भी पाए जाते है।
किसी देश में चट्टानों के प्रकार, मृदा एवं स्थलाकृतियों या उच्चावच, वनस्पति, खनिज सम्पदा इत्यादि वहाँ पाई जाने वाली भूगर्भिक संरचना का प्रतिफल होता है। तलछट के जमाव से निर्मित भूमि में परतदार चट्टानें पाई जाती है। जिनसे उपजाऊ मृदा का निर्माण होता है। इसके विपरीत प्राचीनतम रवेदार चट्टानों से निर्मित मृदा अनुपजाऊ होती है। परन्तु प्राचीनतम चट्टानों में धात्विक खनिजों ( लोहा, सोना, मैगनीज आदि ) प्रचूर मात्रा में पाई जाती है। समुद्री निक्षेप से निर्मित चट्टानों में खनिज तेल की मात्रा पाई जाती है।
जहाँ तक भारत की भूगर्भिक संरचना का प्रश्न है तो, यहाँ पर प्राचीनतम काल से लेकर नवीनतम काल तक की चट्टानें पाई जाती है। जहाँ एक ओर भारत के प्रायद्वीपीय पठार में आर्कियन महायुग के प्राचीनतम चट्टाने पाई जाती है जिसमे विविध प्रकार के खनिज सम्पदा पाई जाती है। वहीं दूसरी ओर सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी भागो में निओजोइक महायुग के होलोसीन काल की नवीनतम अवसादी चट्टानें की बहुलता पाई जाती है। इन नदियों के डेल्टाई भागो अर्थात नदियों के मुहाने में नवीनतम चट्टानों का निर्माण निरंतर जारी है। और यहाँ की मिट्टियाँ फसल की दृष्टि से काफी उपजाऊ है।
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भारत की भूगर्भिक संरचना का वर्गीकरण
हमारे भारत की भूगर्भिक संरचना को निम्न चार वर्गों में वर्गीकृत करके भारतीय भूगर्भ का अध्ययन किया जाता है।
- आद्यकल्प के शैल ( चट्टान ) समूह ( आर्कियन संघटन की चट्टानें )
- आर्कियन क्रम की चट्टानें
- धारवाड़ क्रम ( प्रोटेरोज़ोइक ) क्रम की चट्टानें
- पुराण समूह की चट्टानें
- कुडप्पा क्रम की चट्टानें
- विंध्यन क्रम की चट्टानें
- द्रविड़ियन समूह की चट्टानें
- आर्यन समूह की चट्टानें
- गोंडवाना क्रम की चट्टानें
- दक्कन ट्रैप
- टर्शियरी क्रम की चट्टानें
- क्वाटरनरी क्रम की चट्टानें ( नूतनकल्प )
आद्यकल्प के शैल समूह (आर्कियन संघटन की चट्टानें)
या पूर्व कैम्ब्रियन काल के शैल समूह
इस समूह में पाई जाने वाली चट्टानें सबसे प्राचीनतम शैल मानी जाती है क्योकि, इसका निर्माण कैम्ब्रियन काल से पूर्व की मानी जाती है। जो पृथ्वी के निर्माण लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व से लेकर पुराजीवी महाकल्प लगभग 57 करोड़ वर्ष पूर्व के मध्य माना जाता है। या कहे कि पृथ्वी के निर्माण से लेकर कैम्ब्रियन काल के प्रारम्भ तक माना जाता है।
आद्यकल्प समूह की चट्टानों को दो वर्गो में विभाजित किया जाता है।
( 1. ) आर्कियन क्रम की चट्टानें
इस क्रम की चट्टानों का निर्माण तप्त पृथ्वी के ठंड़े होने के कारण हुआ है।
ये चट्टानें सबसे प्राचीनतम चट्टाने है।वर्त्तमान समय में यह अपने मूल रूप में नहीं पाई जाती है। यह कायंत्रित या रूपांतरित होकर नाइस एवं शिष्ट प्रकार की चट्टानों में परिवर्तित हो गई है।
इस प्रकार की चट्टानों में किसी प्रकार का जीवाश्म नहीं पाया जाता है। क्योकि इसके निर्माण के समय जीवन का विकास नहीं हुआ था।
आर्कियन क्रम की चट्टानों में परत भी नहीं पाई जाती है ये चट्टानें रवेदार होती है। तथा इसमें तलछटों का आभाव पाया जाता है।
ये चट्टानें अन्तर्वेधी चट्टाने है जो धरातल के अधिक गहराई तथा पतली परत ( पत्तीदार ) पाई जाती है।
विश्व के सबसे पाचीनत्म पठार तथा वलित ( मोड़दार ) पर्वतो के जड़ो ( core ) इन्ही चट्टानों से निर्मित है।
भारत में इसके स्पष्ट तीन रूप पाया जाता है।
पहला बंगाल नाइस – इसका विस्तार पूर्वी घाट, उड़ीसा ( कोरापुट और बोलांगीर जिलों में इसे ‘खोड़ जनजाति’ के कारण इसे ‘खोड़ोलाइट‘ के नाम से जाता जाता है। ), झारखण्ड के (मानभूम,हजारीबाग), आंध्र प्रदेश के नैल्लोर तथा तमिलनाडु के सेलम जिला में स्थित है इसका कुछ हिस्सा मेघालय के पठार तथा मिकिर पहाड़ियों में पाया जाता है। इसकी पहचान पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में की गई थी अतः इसे बंगाल नाइस कहा जाता है।
दूसरा बुन्देलखण्ड नाइस – इसका विस्तार उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, मध्य प्रदेश के बघेलखण्ड में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना तथा तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रो में पाया जाता है।
तीसरा नीलगिरि नाइस – इसको चेरनोकाइट के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्य रूप से तमिलनाडु के ( दक्षिणी आरकोट, पालनी पहाड़ियों, शेवरॉय पहाड़ियों तथा नीलगिरि ), तेलंगाना के लेल्लौर, ओडिसा के बालासोर, कर्नाटक तथा केरल के मालाबार क्षेत्र में। इसके अलावे झारखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के अरावली क्षेत्र में इन चट्टानों की प्रचुरता पाई जाती है।
उपरोक्त तीन रूपों के अतिरिक्त भारत के उत्तर पश्चिम जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख के महान हिमालय, लद्दाख, जास्कर,कराकोरम श्रेणियों के जड़ो में तथा उत्तर पर्वी अरुणाचल प्रदेश के महान हिमालय के जड़ो में पाया जाता है।
( 2. ) धारवाड़ कर्म की चट्टानें ( प्रोटेरोज़ोइक संघटन )
इस क्रम की चट्टानों का नामकरण कर्नाटक के धारवाड़ जिले के नाम पर किया गया है। इस क्रम की चट्टानों का अध्ययन प्रथम बार इसी जिला में किया गया था इसी कारण इसका नाम धारवाड़ क्रम की चट्टाने रखा गया है।
इसका निर्माण आर्कियन क्रम की चट्टानों के अपरदन एवं निक्षेपण के फलस्वरूप हुआ है इसके कारण इन चट्टानों को भारत के प्राचीनतम परतदार चट्टान भी माना जाता है। जो अत्यधिक रूपांतरित एवं विरूपित हो चूकि है।
इसमें भी जीवाश्म का आभाव पाया जाता है। क्योकि इसके निर्माण के समय भी जीवो का उद्भव नहीं हुआ था।
धारवाड़ क्रम की चट्टानों में भारत के 98 प्रतिशत धात्विक खनिज सम्पदा पाई जाती है। जैसे- लोहा, मैगनीज, शीशा, जस्ता, सोना, चाँदी, डोलोमाइट, अभ्रख, ताम्बा, टंग्स्टन, नकेल, बहुमूल्य पत्थर इत्यादि
भारत में इसके तीन क्षेत्र है। ( 1 ) कर्नाटक के धारवाड़ और बेल्लारी जिला जहाँ इसका विस्तार तमिलनाडु के नीलगिरि, तथा मदुरई तक है। ( 2 )छोटानागपुर पठार के मध्य तथा दक्षिण पूर्वी हिस्सा, मेघालय का पठार और मिकिर पहाड़ियाँ और ( 3 ) दिल्ली राजस्थान के अरावली तथा रियोली श्रेणी।
अरावली पर्वत का निर्माण इसी क्रम की चट्टानों से हुआ है। यह संसार के सबसे प्राचीनतम मोड़दार पर्वत है।
धारवाड़ क्रम की कुछ महत्वपूर्ण श्रेणियाँ इस प्रकार है।
( 1 ) चैंपियन श्रेणी – यह श्रेणी मैसूर के उत्तर पूर्व तथा बेंगलुरु के पूर्व में स्थित है। जिसका विस्तार कर्नाटक के कोलार तथा रायचूर तक है। कोलर स्वर्ण क्षेत्र इसी में स्थित है। यह विश्व के सबसे गहरी खानो में से एक है। जो 3.5 किमी गहरी है। जबकि इसमें स्वर्ण की मात्रा 5.5 ग्राम प्रति टन है। भारत के सबसे अधिक सोना यही से प्राप्त किया जाता है।
( 2 ) चम्पानेर श्रेणी – यह श्रेणी गुजरात के बड़ोदरा के आस-पास अरावली प्रणाली का बाहरी विस्तार है। इस श्रेणी में संगमरमर की बहुलता तथा हरे रंग के आकर्षक संगमरमर पाए जाते है। इसके अतिरिक्त चुना पत्थर, स्लेट, क्वार्ट्ज, इत्यादि पाए जाते है।
( 3 ) चिल्पी श्रेणी – यह मध्य प्रदेश के बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के कुछ हिस्सों में विस्तृत है। इसमें ग्रिट, क्वार्ट्ज, हरे पत्थर, और मैग्नीफेरस चट्टानें पाई जाती है।
( 4 ) क्लोजपेट श्रेणी – यह मध्य प्रदेश के बालाघाट और छिंदवाड़ा में फैला है। इसमें क्वार्ट्ज, बंबा के पाइराइट और मैग्नीफेरस चट्टाने पाई जाती है।
( 5 ) लौह अयस्क श्रेणी – इसका विस्तार झारखण्ड के सिंहभूम से ओडिसा के मयूरभंज और क्वेनझर जिलों तक है इसकी लम्बाई 65 किमी है जिसमे 3000 मिलियन टन लौह अयस्क भंडार होने का अनुमान है।
( 6 ) खोण्डोलाइट श्रेणी – इसका विस्तार पूर्वी घाट के उत्तरी पूर्वी सीमा से दक्षिण में कृष्णा घाटी तक विस्तृत है इसमें खोण्डोलाइट, कडुराईट, एनोकाइट और नाइस प्रमुख चट्टानें पाई जाती है।
( 7 ) रियलो श्रेणी – इसका विस्तार दिल्ली ( मजनू का टीला ) से लेकर राजस्थान के अलवर तक उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम में फैला हुआ है। इसमें संगमरमर की बहुलता पाई जाती है। मकराना तथा भगवानपुर में उच्च कोटि के संगमरमर की चट्टाने पाई जाती है। इसे दल्ली श्रेणी भी कहा जाता है।
( 8 ) सकोली श्रेणी – इस श्रेणी का विस्तार मध्य प्रदेश के जबलपुर और रीवा जिलों में है। इसमें अभ्र्क, डोलोमाईट, शिष्ट, तथा संगमरमर प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।
( 9 ) सौसर श्रेणी – इसका विस्तार महाराष्ट्र के नागपुर और भंडारा जिलों तथा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में है। इसमें क्वार्ट्ज, अभ्र्क, शिष्ट, संगमरमर तथा मैग्नीफेरस चट्टानें प्रचुर मात्रा में पाई जाती है
पुराण समूह की चट्टानें
( 1 ) कुडप्पा क्रम की चट्टाने
इस क्रम की चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के अपरदन एवं निक्षेपण के फलस्वरूप हुआ है।
ये चट्टाने अवसादी चट्टानें होती है। अतः ये परतदार भी होती है।
इसका रूपांतरण आर्कियन और धारवाड़ क्रम की चट्टानों के अपक्षा कम हुआ है।
इसमें भी जीवाश्म की मात्रा नहीं पाई जाती है। हलांकि इस समय तक पृथ्वी पर जीवन का विकास हो चूका था।
इसका नामकरण आंध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले के नाम पर हुआ है। जहाँ इसका विस्तार अर्ध-चंद्राकर में पाया जाता है।
इस क्रम की चट्टाने आंध्र प्रदेश के कुडप्पा और कर्नूल, छतीसगढ़, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक के कुछ क्षेत्रो में विस्तृत है।
इसमें बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, संगमरमर, एस्बेस्टस, हीरे ( गोलकुंडा में ), सोना ( कुडप्पा में ) पाए जाते है।
इस क्रम की महत्वपूर्ण श्रेणियों में पापाघानी श्रेणी, रियलो श्रेणी, कृष्णा श्रेणी, नल्लामलाई श्रेणी है।
( 2 ) विंध्यन क्रम की चट्टानें
इसका नामकरण विंध्यन पर्वत पर किया गया है। जो गंगा के मैदान तथा दक्कन के पठार को अलग करता है।
विंध्यन प्रणाली राजस्थान के चितौड़गढ़ से लेकर बिहार के सासाराम तक फैली हुई है।
इसमें लाल बलुआ पत्थर, भवन निर्माण सम्बन्धी चट्टानें, सजावटी पत्थर इत्यादि प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।
साँची का स्तूप, लाल किला, जमा मस्जिद, फतेहपुर सिकरी, दिल्ली का बिड़ला मंदिर इत्यादि प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण इसी क्रम की चट्टानों से किया गया है।
इसके अंतर्गत भांदर श्रेणी, विजवार श्रेणी तथा कैमूर श्रेणी इसमें शामिल है।
द्रविड़ियन समूह की चट्टानें ( पुराजीवी समूह )
इसे पुराजीवी महाकल्प की महाकल्प की चट्टानें भी कहा जाता है।
इसके अंतर्गत भारत की भूगर्भिक संरचना को ऑर्डोविसियन, सिलुरियन, डिवोनियन, कार्बोनिफेरस और पर्मियन काल में निर्मित चट्टानों को सम्मिलित किया जाता है।
इस समूह की चट्टानों की अवधि 57 करोड़ वर्ष से 24.5 करोड़ वर्ष पूर्व तक मानी जाती है।
प्रायद्वीप भारत में मध्य प्रदेश के रीवा जिले के उमरिया के आस-पास के क्षेत्र में पाया जाता है।
इसका विस्तार जम्मूकश्मीर पीरपंजाल, हंदवारा, लिड्डर घाटी( अनंतनाग ), हिमाचल प्रदेश के स्पीति, कांगड़ा, शिमला तथा उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमायूं हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है।
द्रविड़ियन काल में ‘पेंजिया’ का विभाजन हुआ था।
‘टेथिस सागर’ का निर्माण भी इसी समय हुआ था।
इन चट्टानों में बालूपत्थर, मृतिका ( क्ले ), क्वार्ट्ज, स्लेट, खड़िया इत्यादि प्रमुख शैल पाए जाते है।
आर्यन समूह की चट्टानें
( 1 ) गोंडवाना क्रम की चट्टानें ( मेसोजोइक महाकल्प )
इस क्रम की चट्टानों का विकास मेसोजोइक महाकल्प ( ट्राइऐसिक, जुरैसिक और क्रिटेशियस ) में हुआ है।
भारत की भुसरभिक संरचना समय मापक्रम के अनुसार यह अवधि प्रवर कार्बनीकल से लेकर सिनोजोइक काल तक या आर्यन काल के प्रारम्भ तक मन जाता है।
गोंडवाना शब्द का विकास मध्य प्रदेश के गोंड राज्य से हुआ है जहां सर्वपर्थम इस क्रम की चट्टानों का पता चला था।
मछलियों एवं रेंगनेनाले जीवों के अवशेष इस क्रम की चट्टानों में पाए जाते है।
भारत का 98 प्रतिशत कोयला इसी क्रम की चट्टानों में पाए जाते है।
ये चट्टानें मुख्य रूप से झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओडिसा, महारष्ट्र में पाई जाती है।
कार्बोनिफेरस युग में प्रायद्वीपीय भारत में कई दरारों का निर्माण हुआ था इन दरारों के बीच में भूमि के धंसने से बेसिन के आकर को गर्तो का निर्माण हुआ इसमें उस समय के वनस्पतियो के दबने से कोयले का निर्माण हुआ।
गोंडवाना क्रम की प्रमुख श्रेणियों को दो वर्गो में रखा जाता है।
पहला निम्न गोंडवाना क्रम ( तालचेर, दमुदा तथा पंचेत श्रेणी )
और दूसरा ऊपरी गोंडवाना क्रम ( महादेव, राजमहल, जबलपुर एवं उमिया श्रेणी )
( 2 ) दक्कन ट्रैप ( क्रिटेशस प्रणाली )
मेसोजोइक महाकल्प के अंतिम काल क्रिटेशस से लेकर इयोसीन काल तक प्रायद्वीपीय भारत में ज्वालामुखी क्रिया प्रारंभ हुई थी। इसी दरारी ज्वालामुखी उद्गार के कारण लगभग 5 लाख वर्ग किमी के क्षेत्र में लावा का विस्तार लगभग 3000 मीटर की मोटी परतो में हो गया। इसी क्षेत्र को दक्कन ट्रैप के नाम जाता जाता है। इस पठार को ट्रैप कहने के पीछे कारण यह है कि ज्वालामुखी के निक्षेप अर्थात तरल लावा के अलग-अलग समय में जमने से सीढ़ीनुमा आकृति बन गई है जो पश्चिम की और सबसे ऊँचा तथा पूरब और दक्षिण की ओर इसकी ऊंचाई कम होती जाती है।
इसका विस्तार गुजरात के कच्छ और कठियावाड़ा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के मालवा का पठार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, तेलंगाना तक विस्तृत है।
इस क्रम की चट्टानों में बेसाल्ट एवं डोलोराइट की प्रधानता पाई जाती है। इन्ही चट्टानों के विखंडन से काली मिट्टी का निर्माण हुआ है। जिसे ‘कपासी मिट्टी’ या ‘रेंगर’ मिट्टी के नाम से जाता जाता है।
उत्तर पश्चिम में लावा की मोटाई सर्वाधिक तथा पूर्व एवं दक्षिण दिशाओ में बढ़ने पर इसकी मोटाई कम होती जाती है। मुम्बई तट के सहारे लगभग 3000 मीटर, कच्छ में लगभग 800 मीटर, अमरकंटक में 150 मीटर तथा जबलपुर में इसकी मोटाई 6 मीटर पाई जाती है।
( 3 ) टर्शियरी क्रम ( तृतीयक प्रणाली या सिनोजोइक महाकल्प )
इस क्रम की चट्टानें का निर्माण सिनोजोइक महाकल्प के इओसिन युग से लेकर प्लायोसिन युग के बीच हुआ है।
इसी काल में हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ है।
इयोसीन काल में रानीकोट एवं किरथर श्रेणी की चट्टानों का निर्माण हुआ है। जबकि ओलिगोसीन नारी, गज एवं मुर्री क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ है।
मुर्री चट्टानों का निर्माण नदी एवं सागर के मिलन स्थल पर हुआ है। जबकि शिवालिक की चट्टानें नदीय है।
असम, राजस्थान एवं गुजरात में खनिज तेल इओसिन एवं ओलिगोसीन संरचना में ही पाये जाते है।
इस काल की चट्टानों में उत्तरी पूर्वी भारत एवं जम्मूकश्मीर में निम्नस्तरीय कोयले भी पाए जाते है।
इस संरचना में हिमालय प्रदेश एवं गढ़वाल हिमालय में चूना पत्थर के भी निक्षेप पाए जाते है।
इसका विस्तार कश्मीर से असम तक है।
इसके अलावे पूर्वी एवं पश्चमी भारतीय तटीय क्षेत्रो में यह संरचना छिटपुट रूप में पाई जाती है।
( 4 ) नवजीवी ( नूतनमहकल्प या क्वार्ट्नरी ) क्रम की चट्टानें
इसी काल में उत्तर भारत का मैदान अस्तित्व में आया।
मध्य से लेकर उत्तरी प्लिस्टोसिन काल में पुरानी जलोढ़ मृदा का निर्माण हुआ है। जिसे ‘बांगर’ के नाम से जाना जाता है।
जबकि प्लिस्टोसिन के अंत समय से वर्त्तमान समय के होलोसीन काल तक नवीन जलोढ़ मृदा का निर्माण जारी है। जिसे ‘खादर‘ के नाम से जाना जाता है।
विशाल मैदान में निक्षेपित तलछट्टों की गहराई हिमालय तरफ अधिक तथा प्रायद्वीप पठार की तरफ गहराई कम पाई जाती है। कही-कही इसकी गहराई 2000 मीटर तक भी पाई जाती है।
नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, सतलज नदियों के तटीय क्षेत्रो में इस क्रम की निक्षेप पाए जाते है।
प्लिस्टोसिन काल में कश्मीर घाटी का निर्माण हुआ है। यह घाटी प्रारम्भ में एक झील थी। नदियों द्वारा मलबों के निरंतर निक्षेपन के फलस्वरूप यह मैदान में परिवर्तित हो गया है।
इसी प्रकार के पर्वतीय झीलों के निक्षेप ( नदीय एवं हिमनदीय ) को ‘करेवा’ कहा जाता है। इन्ही करेवा में जाफ़रान ( केशर ), पिस्ता बादाम और अखरोट की खेती की जाती है।
करेवा निक्षेप में बालू, मृतिका, दुमट, गाद, गोलाश्म आदि पाया जाता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार भूवैज्ञानिक समय-मान के आधार पर देखा जय तो भारत की भूगर्भिक संरचना पृथ्वी के निर्माण के समय लेकर वर्त्तमान समय तक की चट्टानों से बनी है। जिसके कारण यहाँ विविध प्रकार के खनिज सम्पदा, विविध प्रकार की मिट्टियाँ, विविध प्रकार की स्थलाकृतियाँ इत्यादि विविधताएँ पाई जाती है।
जानिए इसके बारे में : ------------------------------- भारत की स्थिति और विस्तार -------------------------------
Sampurn Bharat mein chattano ki sthiti Aur chattanon ke Prakar tatha khanij padarth ki jankari acchi hai,