नमस्कार मित्रों ! आज के इस लेख में हमलोग भारत के भौतिक स्वरूप के अंतर्गत प्रमुख भू-भाग भारत के प्रायद्वीपीय पठार के विभिन्न पहलुओं को जानेंगे। जैसे इसकी संरचना कैसी है ? इसका विकास कैसे हुआ है ? इसका विस्तार क्या है? इसे कितने भागो में विभाजित करके प्रायद्वीपीय पठार के उच्चावचों का अध्ययन किया जाता है? यह पठार भारत के लिए क्या महत्व रखता है। इत्यादि।
भारत के प्रायद्वीपीय पठार को जानने से पहले हमें प्रायद्वीप और पठार के बारे में जानना जरूरी है।
प्रायद्वीप
धरातल के उस भू-भाग को प्रायद्वीप कहा जाता है जो, तीन ओर से जल से घिरा हो तथा एक ओर से स्थल से जुड़ा हो ऐसे भूखंड को प्रायद्वीप कहा जाता है। जैसे- भारतीय प्रायद्वीप , कोलाबा प्रायद्वीप ( मुंबई ), काठियावाड़ प्रायद्वीप ( गुजरात), ग्वादर प्रायद्वीप ( पाकिस्तान ), जाफना प्रायद्वीप ( उत्तरी श्रीलंका ) आदि।
धरातल के उस भू-आकृति को पठार कहा जाता है, जो आस-पास के काम-से-कम एक क्षेत्र से ऊँचा हो जिसक शीर्ष समतल या उबड़-खाबड़ हो, और जिसका काम-से-कम एक किनारा आस-पास के क्षेत्र से या सागर तल से ऊँचा एवं उसकी ढाल तीव्र हो ऐसी भू-आकृति को पठार कहा जाता है। जैसे- दक्क्न का पठार, छोटानागपुर का पठार, कोलम्बिया का पठार, पेटागोनिया का पठार इत्यादि।
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भारत के प्रायद्वीपीय पठार का स्वरूप
भारत के प्रायद्वीपीय पठार का स्वरूप लगभग त्रिभुजाकार है। जिसका आधार उत्तर पश्चिम में दिल्ली कटक ( अरावली पर्वत का उत्तर पूर्वी विस्तार ) से लेकर उत्तर पूर्व में राजमहल की पहाड़ियों के बीच गंगा मैदान के दक्षिण में तथा इस पठार का शीर्ष भारत के दक्षिण में स्थित इलायची ( कार्डामम ) पहाड़ी का दक्षिणी भाग है।
इस पठार का बाहरी सीमा चारो ओर से पर्वतों से घिरा हुआ है। इस पठार के उत्तर पश्चिम में अरावली की पहाड़ी, उत्तर में विंध्यन, सतपुड़ा, महादेव, मैकाल, कैमूर की पहाड़ियाँ, उत्तर पूर्व में राजमहल की पहाड़ी, पूर्व में पूर्वी घाट की पहाड़ी, दक्षिण में नीलगिरी, अन्नामलाई और इलाइची की पहाड़ियाँ तथा पश्चिम में पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ स्थित है।
इस पठार का कुछ हिस्सा पूर्वोत्तर भारत के ‘शिलांग का पठार’ तथा ‘ऐंगलोंग का पठार‘ के रूप में स्थित है।
यह पठार लगभग 16 लाख वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसकी औसत ऊंचाई समुद्र तल से 600 से 900 मीटर, उत्तर से दक्षिण इसकी लम्बाई 1600 किमी तथा पूरब से पश्चिम इसकी चौड़ाई 1400 किमी है। समान्यतः यह पठार पश्चिम की ओर ऊँची तथा पूर्व की ओर बढ़ाने पर इसकी ऊंचाई कम होते जाती है। जो यहाँ प्रवाहित होने वाली नदियों से स्पष्ट होता है। इस पठार का सर्वोच्च शिखर अनाईमुडी ( 2695 मीटर ) है जो, अन्नामलाई श्रेणी में स्थित है।
प्राद्वीपीय पठार में प्रवाहित होने वाली अधिकांश बड़ी नदियाँ बंगाल की खाड़ी में गिरती है। जैसे- स्वर्णरेखा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि। पश्चिम की ओर अरब सागर में गिरने वाली नदियों में नर्मदा, ताप्ती, माही, साबरमती प्रमुख है। जबकि उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली नदियों में चंबल, सिंध, बेतवा, केन, सोन आदि प्रमुख है जो यमुना और गंगा की सहायक नदी है।
भारत के प्रायद्वीपीय पठार का विकास एवं संरचना
भारत का प्राचीनतम भूभाग प्रायद्वीपीय पठार के रूप में जाना जाता है। क्योकि यह पठार गोंडवाना लैंड के टूटने से बना है। कार्बोनिफेरस युग से पहले यह गोंडवाना लैंड का एक महत्वपूर्ण भाग था। गोंडवानालैण्ड के विखंडन के बाद यह इंडो-आस्ट्रेलियन प्लेट के रूप में उत्तर पूर्व की ओर अग्रसारित होकर मेसोजोइक काल के आदिनूतन युग में एशियाई प्लेट से टकराया।
इस पठार में जटिल तथा प्राचीनतम काल की भूगर्भिक संरचनाएँ पाई जाती है। सबसे प्राचीनतम आर्कियन काल की चट्टानों के अपरदन, निक्षेपण तथा रूपांतरण से इसके भूगर्भिक संरचना का विकास हुआ है। इसमें प्राचीन नाइस, ग्रेनाइट, बैसाल्ट, संगमरमर इत्यादि। कैम्ब्रियन कल्प से यह भूखंड एक कठोर खंड के रूप में स्थित है।
इस पठार के अनेक भागो में भू-उत्थान व निमज्जन, भ्रंश तथा विभंग के कारण कई प्रकार की भू-आकृतियाँ पाई जाती है। जैसे मोड़दार पर्वत, अपशिष्ट पर्वत, ब्लॉक पर्वत, भ्रंश घाटियां, पर्वत स्कंध, नग्न चट्टानी संरचना, मोनडोनाक आदि।
भारतीय प्रायद्वीपीय पठार के भाग
इस पठार को मुख्य धरातलीय उच्चावच लक्षणों के आधार पर तीन प्रमुख भागो में विभाजित किया जाता है।
- दक्कन का पठार।
- मध्य का उच्च भू-भाग।
- उत्तर पूर्वी पठार।
( 1. ) दक्कन का पठार
यह पठार एक त्रिभुजाकार पठार है। इसके उत्तर में विंध्यन, सतपुड़ा, मैकाल, महादेव पर्वत, पूरब में पूर्वी घाट की पहाड़ियाँ तथा पश्चिम में पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ स्थित है। इस पठार का अधिकांश भाग ज्वालामुख के लावा को जमने से हुआ है। इसका क्षेत्रफल लगभग 2 लाख वर्ग किमी तथा इसकी औसत ऊंचाई 600 मीटर है जबकि दक्षिण में इसकी ऊंचाई अधिक पाई जाती है। इस पठार का ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है।
इसमें प्रवाहित होने वाली अधिकांश नदियां पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इन नदियों में महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी प्रमुख है। जबकि पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियों में नर्मदा और ताप्ती प्रमुख है जो अरब सगर में गिरती है।
दक्कन के पठार को कई क्षेत्रीय पठार के नामो से भी जाता जाता है जैसे:-कर्नाटक का पठार, तेलंगाना का पठार, तमिलनाडु का पठार, महाराष्ट्र का पठार आदि।
पश्चिमी घाट
दक्कन के पठार का पश्चिमी सीमा, पश्चिमी घाट द्वारा सीमांकित है। यह पश्चिमी तट के समांतर उत्तर में ताप्ती नदी के मुहाने से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैली हुई है। इसकी लम्बाई 1600 किमी तथा इसकी औसत ऊंचाई 900 से 1600 मीटर के बीच पाई जाती है।
इसका पश्चिमी ढाल तीव्र तथा पूर्वी ढाल मंद है। पश्चिमी ढाल में प्रवाहित होने वाली नदियां ऊँचे जलप्रपात का निर्माण करती है। तथा तीव्रगामी होती है शरावती नदी में गरसोप्पा ( जोग जलप्रपात ) स्थित है। इसके पश्चिमी ढाल पर सदाबहार वन जबकि पूर्वी ढाल पर पर्णपाती वन पाए जाते है।
यह एक भ्रंश पर्वत है। जिसका निर्माण इस क्षेत्र के अरब सागर में अधोसंवलन ( Downworping ) से हुई है। पश्चिमी घाट की पहाड़ी को कई स्थानीय नामो से जाना जाता है। जैसे:- महाराष्ट्र में सह्याद्रि, कर्नाटक और तमिलनाडु में नीलगिरी, और केरल में अन्नामलाई और इलायची ( कार्डामम ) की पहाड़ियां इत्यादि।
प्रायद्वीपीय पठार की सबसे ऊँची चोटी अनाईमुडी ( 2695 मीटर ) है जो अन्नामलाई श्रेणी में स्थित है। जबकि प्रायद्वीपीय भारत की दूसरी ऊँची पर्वत चोटी डोडाबेटा, नीलगिरी पहाड़ी में स्थित है।
यह एक सतत श्रेणी है जिसे पार करना कठिन कार्य है। इसे कुछ दर्रो के माध्यम से पर किया जाता है। जैसे उत्तर से दक्षिण की ओर निम्न इस प्रकार है।
- थालघाट दर्रा – मुंबई को नासिक से जोड़ता है। मुंबई-कोलकाता रेलमार्ग बनाया गया है।
- भोरघाट दर्रा – मुंबई को पुणे से जोड़ता है। मुंबई-चेन्नई रेलमाग का निर्माण किया गया है।
- पालघाट दर्रा – कोच्चि को कोयंबटूर जोड़ता है। कोच्चि-चेन्नई रेलमार्ग का निर्माण किया गया है।
पूर्वी घाट
यह पहाड़ी दक्कन पठार का पूर्वी सीमा निर्धारित करती है। जो उड़ीसा के उत्तर-पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर दक्षिण में नीलगिरी की पहाड़ी तक बंगाल की खाकी के तटीय सीमा के समांतर विस्तृत है। इसकी चौड़ाई उत्तर में अधिक ( 200 किमी ) तथा दक्षिण में कम ( 100 किमी ) है। इसकी औसत ऊंचाई 600 मीटर है।
यह एक असतत श्रेणी है। जिसे बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी के द्वारा कई भागो में विखंडित कर दिया गया है। पूर्वी घाट के महत्वपूर्ण श्रेणियां जावादी पहाड़ियाँ, पालकोण्डा श्रेणी, नल्लामाला पहाड़ी, महेन्द्रगिरि पहाड़ी इत्यादि। पूर्वी घाट की ऊँची चोटी महेन्द्रगिरि है जिसकी ऊचाई 1500 मीटर है।
( 2. ) मध्य का उच्च भू-भाग
यह पठार भारत के मध्य में नर्मदा नदी के उत्तर तथा गंगा यमुना मैदानी क्षेत्र के दक्षिण में स्थित है। यहाँ से निकलने नाली ज़्यदातर नदियां यमुना तथा गंगा की सहायक नदी है जैसे केन,बेतवा, चंबल, सिंध, सोन, उत्तरी कोयल, दामोदर इत्यादि। यह पठार भी त्रिभुजाकार है जिसका आधार उत्तर पश्चिम ओर अरावली की पहाड़ी, लंग के रूप में विंध्यन, मैकाल, कैमूर की पहाड़ी तथा कर्ण के रूप में गंगा यमुना नदी का दक्षिणी विस्तार है। इसका शीर्ष भाग राजमहल की पहाड़ियों के रूप में देखा सकता है।
इस पठार का समान्य ढाल दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर है। इसे कई स्थानीय नामो से जाना जाता है। जैसे:- पश्चिम से पूर्व की ओर मालवा का पठार, बुंदेलखंड का पठार, बघेलखण्ड का पठार तथा छोटानागपुर का पठार आदि।
अरावली पर्वत श्रेणी
यह पर्वत श्रेणी प्राचीनतम पर्वत श्रेणियों में से एक है। यह एक अपशिष्ट मोड़दार पर्वत श्रेणी है। जिसका विस्तार मालवा के पठार के उत्तर पश्चिम में दिल्ली से लेकर दक्षिण पश्चिम में गुजरात के पालनपुर तक 800 किमी तक विस्तृत है। इसकी सबसे ऊँची चोटी गुरु शिखर ( 1722 मीटर ) जो माउन्ट आबू पर्वत पर स्थित है।
इसके पश्चिम में थार का मरुस्थल स्थित है जहाँ विविध प्रकार के मरुस्थलीय स्थलाकृतियां पाई जाती है। जिसमे बरखान, छत्रक शीला, इन्सेलबर्ग, ज्यूजेन इत्यादि। अरावली पर्वत में मुख्य रूप से काफी रूपांतरित चट्टानें पाई जाती है। जैसे:- स्फटिक, नाइस, शिष्ट, संगमरमर आदि। जो प्रीकैम्ब्रियन काल की चट्टानों का रूपांतरण है।
मालवा का पठार
यह पठार पश्चिम में अरावली, दक्षिण में विंध्यन, तथा पूर्व में बुंदेलखंड के पत्र से घिरा हुआ है। इस पठार में प्रवाहित नदियों के दो तंत्र है, एक तंत्र अरब सागर में मिलती है जिसमे नर्मदा, ताप्ती, माही, साबरमती प्रमुख है वही दूसरी ओर उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली यमुना की सहायक नदियाँ केन, बेतवा, सिंध, चंबल प्रमुख है। केन, बेतवा, सिंध, चंबल अपने परवाह क्षेत्र में इस पठार को उबड़-खाबड़ क्षेत्र में बदल दिया है। जिसे बीहड़ ( Ravines ) के रूप में जाना जाता है।
बुंदेलखंड का पठार
यह पठार दक्षिण में विंध्यन पर्वत, उत्तर में यमुना नदी, उत्तर पश्चिम में चंबल तथा दक्षिण पूर्व में पन्ना आजमगढ़ श्रेणी से घिरा हुआ है। इस पठार का विस्तार उत्तर प्रदेश के बाँदा, हमीरपुर, जालौन और ललितपुर जिलों तथा मध्य प्रदेश के दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, और पन्ना जिलों तक है। बेतवा, केन धसान नदियों द्वारा तीखे खड्डो, क्षिप्रिकाएँ, जलप्रपात का विकास किया गया है।
बघेलखण्ड का पठार
इस पठार के अंतर्गत मध्य प्रदेश के सतना और रीवा जिला तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर को शामिल किया जाता है। इस पठार के दक्षिण में नर्मदा, सोन नदी द्रोणियाँ स्थित है। जिसमे आर्कियन और बिजवार श्रेणियों की चट्टानें विद्यमान है। इस पठार के दक्षिणी हिस्सा सबसे ऊँचा है जहाँ आर्य अपवाह तंत्र का विकास हुआ है। उत्तर पूर्व की ओर सोन, पश्चिम की ओर नर्मदा, दक्षिण पश्चिम की ओर ताप्ती नदी का उद्गम हुआ है।
छोटानागपुर का पठार
इस पठार का विस्तार झारखंड, छतीसगढ़, उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला, पश्चिम बंगाल का दक्षिण पश्चिमी हिस्सा, उड़ीसा का उत्तरी हिस्सा को शामिल किया जाता है। इस पठार का कई बार उत्थान के कारण कई मझोले एवं छोटे पठार पाए जाते है जैसे:- पाट प्रदेश, रांची, हजारीबाग, सिंहभूम, धनबाद, पलामू, संथाल परगना, पुरलिया, सोनभद्र का पठार।
यहाँ आर्कियन काल के ग्रेनाइट, नाइस चट्टानें पाई जाती है साथ ही साथ धारवाड़ क्रम की अभ्रख और शिष्ट, गोंडवाना काल के कोयला, तथा क्रिटेशस काल के लावा प्रवाह को भी देखा जा सकता है। छोटानागपुर के पठार में भारत का लगभग 40 से 50 प्रतिशत खनिज सम्पदा पाई जाती है।
इस पठार का सबसे ऊँचा क्षेत्र पाट प्रदेश है। जिसकी औसत उचाई 1100 मीटर है। इसी पाट प्रदेश से इस पठार में प्रवाहित होने वाली कई नदियाँ निकलती है। जैसे:- दामोदर, उत्तरी कोयल, दक्षिणी कोयल, कनहर आदि ये नदियाँ अपने मार्ग में जल प्रपात, नदी क्षिप्रिकाएँ, खड्ड आदि का निर्माण करती है।
( 3. ) उत्तर पूर्वी पठार
प्रायद्वीपीय पठार का एक भाग जिसे ‘मेघालय’ तथा ‘कार्बी ऐंगलोंग’ पठार के नाम से जाना जाता है। हिमालय की उत्पति के समय भारतीय प्लेट उत्तर पूर्व दिशा में खिसकने से आपार ऊर्जा के उत्सर्जन के कारण यह पठार एक भ्रंश ( मालदा दर्रा ) के द्वारा छोटानागपुर के पठार से अलग हो गया। इस पठार को यहाँ पर पाए जाने वाले जनजातियों के आधार पर पश्चिम से पूर्व की ओर गारो, खासी तथा जयंतिया तीन महत्वपूर्ण पर्वत शृंखलाएँ पाई जाती है।
छोटानागपुर पठार की तरह ही मेघालय पठार खनिज सम्पदा से समृद्ध है। यह क्षेत्र तीनों ओर पर्वतो से घिरा होने के कारण विश्व का सर्वाधिक वर्षा प्राप्त करने वाला मौसिनराम तथा चेरापूंजी स्थित है। अत्यधिक वर्षा होने के कारण यह पठार एक अपरदित भू-तल है। चेरापूँजी नग्न चट्टानों से ढाका स्थल है। यहाँ वनस्पतियाँ लगभग नहीं के बराबर पाई जाती है।
भारत के प्रायद्वीपीय पठार का महत्व
प्रायद्वीपीय पठार के संगठन, संरचना, अवस्थिति के कारण यह भारत के कई दृष्टि से काफी महत्वपूर्व स्थान रखता है। जिसे निम्न विन्दुओ के माध्यम से समझा जा सकता है।
खनिज सम्पदा के रूप में
इस पठार में आर्कियन, धारवाड़, गोंडवाना क्रम की चट्टानें पाई जाती है। जो कई धात्विक, अधात्विक और जैविक खनिजों से सम्पन्न है। भारत का अधिकांश खनिज सम्पदा इसी पठार में पाया जाता है। जैसे:- लोहा, मैगनीज, ताम्बा, जस्ता, बॉक्साइट, क्रोमियम, सोना, चाँदी, शीशा, पारा, कोयला आदि।
इमरती एवं सजावटी पत्थर की दृष्टि से
यहाँ पर कई प्रकार की सजावटी तथा इमरती चट्टानें पाई जाती है। जिसका उपयोग प्राचीन काल से लेकर वर्त्तमान समय तक किया जा रहा है। इन्ही चट्टानों से साँची का स्तूप, दिल्ली तथा आगरा का लाल किला, जमा मस्जिद, आगरा का ताजमहल का निर्माण किया गया है। इसमें पाए जाने वाले बहुमूल्य सजावटी पत्थरो में हीरा, पन्ना, अभ्रख, संगमरमर, इमरती पत्थरो के रूप में लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर प्रमुख है।
विविध फसलों के उत्पादन की दृष्टि से
प्रायद्वीपीय पठार के लगभग 5 लाख वर्ग किमी में बैसाल्ट लावा निर्मित काली मृदा पाई जाती है। जिसे रेंगर मृदा या कपासी मृदा कहा जाता है। जो विशेषकर कपास, गन्ना, मिलेट, नारंगी, अंगूर, प्याज, दलहन, मक्का के लिए काफी उपयुक्त मृदा है। जिसके कारण इन फसलों का अत्यधिक मात्रा में उत्पादन किया जाता है।
उपरोक्त फसलों के अतिरिक्त इस पठार में लेटेराइट, लाल एवं पीली मृदा तथा कुछ क्षेत्रो अत्यधिक वर्षा होने के कारण यहाँ चाय, कॉफ़ी, रबड़, काजू, मसले, तम्बाकू, मुगफली, तिलहन, दलहन, मोठे अनाज का खेती अत्यधिक मात्रा में किया जाता है।
इमरती लकड़ियाँ के रूप में
पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट तथा नीलगिरी की पहाड़ियों में अत्यधिक वर्षा एवं उच्च तपमान के कारण यहाँ पर उष्ण कटिबंधीय जलवायु पाई जाती है। जहाँ पर पर्णपाती एवं सदाबहार वन पाए जाते है। जिसके कारण इन क्षेत्रो में कई प्रकार के इमरती लकड़ियां पाई जाती है। जैसे:- सागवान, सखुआ ( साल ), अर्जुन, शीशम, गम्हार, आम, जामुन, चंदन आदि पर्णपाती प्रकार की इमरती लकड़ियां तथा एबोनी, महोगनी, बांस, बेंत, रोजवुड, आयरन वुड जैसी सदाबहार इमरती लकड़ियां पाई जाती है।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं की दृष्टि से
प्रायद्वीपीय पठार में प्रवाहित होने वाली नदियाँ अपने परवाह मार्ग में जलप्रपात का निर्माण करती है जिसे जल विद्युत् का उत्पादन करने में किया जा रहा है। साथ ही साथ नदी घाटियों में जगह-जगह बांध बनाकर ( दमोदर घाटी परियोजना, कृष्णा घाटी परियोजना, महानदी घाटी परियोजना, गोदावरी घाटी परियोजना इत्यादि ) बहु उदेश्यों को प्राप्त किया जा रहा है। जैसे:- सिचाई, मत्स्य पालन, विद्युत् उत्पादन, पर्यटक स्थल, मृदा अपरदन से बचाव, बाढ़ नियंत्रण, भूमिगत जल स्तर में वृद्धि इत्यादि।
पर्यटक स्थल के रूप में
इस पठारी भाग में कई मनोरम, प्राकृतिक पर्वतीय पर्यटक एवं शरणस्थलियाँ ( Resorts ) स्थित है। जैसे:- उड्गमांगलम ( ऊंटी ), कोडाईकैनाल, महाबलेश्वर, खंडाला, पंचमढ़ी, नेतरहाट, रांची, पारसनाथ, माउन्ट आबू इत्यादि।
वन उपज के रूप में
प्रायद्वीपीय पठार के वनो में कई प्रकार के वन उपज तथा औषधीय प्राप्त किए जाते है। जैसे:- नीम, तुलसी, धतूरा, बेल, सतावर, पलास, करंज, गोंद, लाह, विभिन प्रकार के बीज, फल, फुल, छल, पत्ता इत्यादि। जिसका उपयोग यहाँ निवास करने वाले लोग अपनी जीविका चलाने के लिए करते है।
विविध प्रकार की जनजातियाँ
इस पठार में कई प्रकार की प्राचीन काल की जनजातियाँ पाई जाती है। जो अपनी संस्कृति सभ्यता के लिया जानी जाती है। जैसे:- संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भील, खड़िया, गोंड, गारो, खासी, जयंतिया इत्यादि।